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ग़ज़ल
देखो ये इल्ज़ाम ग़लत है नज़रें चुराता तुम से 'मयंक'
तुम भी तो वो शर्म-ओ-हया से नज़रें झुकाना भूल गए
मयंक अकबराबादी
ग़ज़ल
मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में घर टूट जाता है
मयंक अवस्थी
ग़ज़ल
वो वफ़ाओं का जफ़ाओं से सिला देते रहे
क्या 'मयंक' उन की मोहब्बत का ये ख़म्याज़ा न था