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ग़ज़ल
दहर में 'मजरूह' कोई जावेदाँ मज़मूँ कहाँ
मैं जिसे छूता गया वो जावेदाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
पढ़ता नहीं ख़त ग़ैर मिरा वाँ किसी 'उनवाँ
जब तक कि वो मज़मूँ में तसर्रुफ़ नहीं करता
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या-रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है फ़साना इश्क़ का डूबा है साहिल अश्क में
मेरे मज़मूँ का ये उनवाँ तल्ख़ियाँ ही ठीक हैं
ए.आर.साहिल "अलीग"
ग़ज़ल
वाह 'अमीर' ऐसा हो कहना शे'र हैं या मा'शूक़ का गहना
साफ़ है बंदिश मज़मूँ रौशन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मिरे मज़मून-ए-सोज़-ए-दिल से ख़त सब जल गया मेरा
क़लम से हर्फ़ जो निकले शरर ही यक-क़लम निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
मुबादा क़िस्सा-ए-अहल-ए-जुनूँ ना-गुफ़्ता रह जाए
नए मज़मून का लहजा नया करना पड़ेगा
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
'मोमिन' वो ग़ज़ल कहते हैं अब जिस से ये मज़मून
खुल जाए कि तर्क-ए-दर-ए-बुत-ख़ाना करेंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
अपने अशआर का ऐ 'बर्क़' न क्यूँ शोहरा हो
साथ हैं ताइर-ए-मज़मूँ के उड़ाने वाले