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ग़ज़ल
मरा हूँ इक बुत-ए-ग़ारत-गर-ए-दीं की मोहब्बत में
कफ़न मेरा सिले तारों से ज़ुन्नार-ए-बरहमन के
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बसा लिया तिरी ख़ुशबू को मज़रा-ए-जाँ में
शगुफ़्त-ए-ग़म तुझे कैसा निहाल हम ने किया
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
ला-मकाँ तक कहीं ठहरा न मिरा पाए-ए-ख़्याल
मज़रा-ए-सब्ज़-ए-फ़लक बीच में पामाल हुआ
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
जफ़ा-ए-पीर सब्क़त ले गई बेदाद-ए-तिफ़्लाँ पर
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
ख़ोशा-चीं बनता है क्यूँ मज़रा-ए-हर-दहक़ाँ का
वस्फ़-ए-इंसान नहीं ये सिफ़त-ए-तैर तो है
रिन्द लखनवी
ग़ज़ल
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
तो न हों सब्ज़ कभी अपनी शिकायात के बीज
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मज़रआ नेकी है अहल-ए-ज़ौक़-ए-ख़िदमत के लिए
घर ख़ुदा का है फ़िदाइयान-ए-रहमत के लिए
मोहन सिंह दीवाना
ग़ज़ल
दाना दाना ख़ोशा ख़ोशा मज़रा' मज़रा' बिजली बिजली
ख़िर्मन ख़िर्मन हासिल हासिल हुस्न-ओ-मोहब्बत दोनों हैं