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ग़ज़ल
जब ज़िक्र-ए-मुस्तफ़ा में थे मसरूफ़ हम 'जमील'
उस वक़्त की ख़ुशी का मज़ा हम से पूछिए
मुस्तफ़ा जमील
ग़ज़ल
यहाँ पे 'मेराज' तेरे लफ़्ज़ों की आबरू क्या
ये लोग बाँग-ए-दरा की क़ीमत लगा रहे हैं
मेराज फ़ैज़ाबादी
ग़ज़ल
साया-फ़गन है नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-मुस्तफ़ा
मंज़िल की ख़ाक फ़िक्र करे कारवान-ए-दिल
अब्दुल्लाह साक़िब
ग़ज़ल
'इल्म-ए-दीन-ए-मुस्तफ़ा उन को सिखाने के लिए
दर्स-गाहों में इमामों को भी ले जाए कोई