निगाह आसी की रोज़-ए-महशर अमीन-ए-रहमत को तक रही है
निगाह आसी की रोज़-ए-महशर अमीन-ए-रहमत को तक रही है
अजीब आलम है बेकसी का नज़र से हसरत टपक रही है
मिरी नज़र फ़िक्र-ए-मासियत से रहीन-ए-ग़म आज तक रही है
तुम्ही से वाबस्ता हैं उमीदें तुम्हारी सूरत को तक रही है
मुझे हो क्या ख़ौफ़-ए-रोज़-ए-महशर कि ज़ेर-ए-दामान-ए-मुस्तफ़ा हूँ
ख़ुदा की रहमत से मेरी दुनिया महक रही है लहक रही है
फ़रिश्ते कैसे अज़ल में हर शय तुम्हारी अज़्मत को झुक गई थी
निगाह-ए-इबलीस में अभी तक वही तो अज़्मत खटक रही है
ख़लील की जुरअतों को समझो शरार-ए-नमरूद को न देखो
जुनूँ ने मंज़िल को पा लिया है ख़िरद अभी तक भटक रही है
तुम्हारे लुत्फ़-ओ-करम का सदक़ा है दोनों आलम में कार-फ़रमा
चमन चमन खिल रही हैं कलियाँ फ़ज़ा-ए-आलम महक रही है
नवेद ऐ तिश्नगान-ए-बादा है जोश पर अब करम का दरिया
कि चश्म-ए-साक़ी से रूह-ए-कौसर उबल रही है झलक रही है
वो धर के आया है अब्र-ए-रहमत गुनाहगारों के सर पे 'ज़ैदी'
दरीचे जन्नत के खुल गए हैं सर अपना ज़ुल्मत पटक रही है
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