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ग़ज़ल
ये चली है कैसी हवा कि अब नहीं खिलते फूल मिलाप के
कभी दौर-ए-फ़स्ल-ए-बहार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
क्यूँकर न रूह ओ जिस्म से हो चंद दिन मिलाप
इस को जुदा ग़रज़ है तो उस को जुदा ग़रज़