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ग़ज़ल
दिल जला फिर ख़ुद जले फिर सारी दुनिया जल उठी
सोज़ लाए थे ब-मिकदार-ए-पर-परवाना हम
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
ये क़ुर्ब ओ बोद ब-मिक़दार-ए-शौक़ सालिक हैं
जिसे तू दूर समझता है दूर कुछ भी नहीं
जलालुद्दीन अकबर
ग़ज़ल
मेरा क़ुसूर क्या है साने को चाहिए था
मिक़दार-ए-हुस्न देता सब्र-ओ-क़रार मुझ को