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ग़ज़ल
तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती
कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
मिटाए दीदा-ओ-दिल दोनों मेरे अश्क-ए-ख़ूनीं ने
'अजब ये तिफ़्ल अबतर था न घर रक्खा न दर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मिटते हुओं को देख के क्यूँ रो न दें 'मजाज़'
आख़िर किसी के हम भी मिटाए हुए तो हैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
सिर्फ़ जबीन-ए-शौक़ हो और किसी का आस्ताँ
सज्दे भी दरमियाँ न हूँ सज्दों को भी मिटाए जा
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
दिलों से जो निकलती है मिटाए से नहीं मिटती
नहीं जाते कभी ये रंग दिल की रौशनाई के
ज्ञानेंद्र विक्रम
ग़ज़ल
रोज़ चूल्हे में जलाता है जो ख़ुद-दारी को
भूक फिर उस की मिटाए कैसे उस की रोटी