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ग़ज़ल
मिरे दिल को आ मिरे मीत ले मिरे जिस्म-ओ-जान को जीत ले
कहीं हार जाए न ज़िंदगी ग़म-ए-हिज्र-हा-ए-दराज़ से
बदीउज़्ज़माँ सहर
ग़ज़ल
ख़स्तगी-ए-कलीम ने नुक्ता अजब समझा दिया
वर्ना हरीफ़ में भी था इस मिज़ा-ए-दराज़ का
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
सोज़-ए-शब-ए-हिज्राँ फिर सोज़-ए-शब-ए-हिज्राँ है
शबनम ब-मिज़ा उठती या ज़ुल्फ़-ए-दराज़ आती
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
उस सोज़न-ए-मिज़ा के तसव्वुर में शाना-साँ
टूटे हैं एक ख़ल्क़ के पहलू में ख़ार-हा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
कहते हैं कट ही जाती है उम्र-ए-दराज़ भी
सो मुतमइन हैं अपने भी दिन बीत जाएँगे