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ग़ज़ल
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
लिख दे कि मैं 'ग़ालिब' का मुक़ल्लिद हूँ ग़ज़ल में
फिर नाम मिरा मो'तक़िद-ए-'मीर' में लिख दे
फ़रहत नदीम हुमायूँ
ग़ज़ल
हब्स-ए-दम के मो'तक़िद तुम होगे शैख़-ए-शहर के
ये तो अलबत्ता कि सुन कर ला'न दम खाने लगा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं
तुम्हारे मो'तक़िद गबरू मुसलमाँ होते जाते हैं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मुतरिब-ए-ख़ुल्द क्या सुनाए वहशत-ए-ख़स्ता क्या सुने
मो'तक़िद-ए-क़दीम है ज़मज़मा हिजाज़ का
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
ख़िदमत में मुझे इश्क़ की है दिल से इरादत
ने मो'तक़िद-ए-कुफ़्र न इस्लाम का हूँ मैं