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ग़ज़ल
ये सब कुछ ख़्वाब है धोका है या कोई फ़साना है
मो'अम्मा क्या है सुलझाने का मेरा मन नहीं करता
साजिद अली
ग़ज़ल
मो'अम्मा क्यों है हर इक गाम पर उलझे सवालों का
मुझे ये ज़िंदगी क्यों इम्तिहाँ मा'लूम होती है
साजिद अली
ग़ज़ल
चंद लम्हों में मो'अम्मा ज़ीस्त का हल कर गया
एक दीवाना ख़िरद-मंदों को पागल कर गया
मोहम्मद अली मोज रामपुरी
ग़ज़ल
इक मो'अम्मा ही रहा ये अहल-ए-दुनिया के लिए
छोड़ कर दुनिया को आख़िर किस जगह जाते हैं लोग
डी. राज कँवल
ग़ज़ल
खुल तो जाना है बिल-आख़िर भेद तेरे हुस्न का
ये मो'अम्मा है ज़रा ताख़ीर करने वास्ते