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ग़ज़ल
भूले हैं अपने फ़र्ज़ को ये ख़्वाजगान-ए-हिन्द
हक़ देने में भी करते हैं इंकार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
सदा सुनते ही गोया मुर्दनी सी छा गई मुझ पर
ये शोर-ए-सूर था या वस्ल का इंकार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल
गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना
क़ैद-ख़ाना है 'अजब गुम्बद-ए-बे-दर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
लम्स की लौ में पिघलता हुज्रा-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात
तुम भी होते तो अंधेरा देखने की चीज़ थी
लियाक़त अली आसिम
ग़ज़ल
जहान-ए-ख़ैर में इक हुजरा-ए-क़नाअत-ओ-सब्र
ख़ुदा करे कि रहे जिस्म ओ जाँ के होते हुए