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ग़ज़ल
मजबूरों की इस बस्ती में किस से पूछें कौन बताए
अपना मोहल्ला भूल गई हैं बे-चारी लैलाएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पता क्या पूछते हैं आप हम सहरा-नवर्दों से
न अपना शहर है बाक़ी मोहल्ला है न घर बाक़ी
सज्जाद शम्सी
ग़ज़ल
गया है मेरे मोहल्ला से जब से बद्र-ए-मुनीर
है चश्म-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं कैसी ज़ार ज़ार न पूछ