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ग़ज़ल
मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के फ़ैज़ से
रिंद का साक़ी का मय का ख़ुम का पैमाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मैं ही अपना मोहतसिब बन जाऊँ वर्ना दोस्तो
गुमरह-ए-मंज़िल हूँ या हूँ राह पर देखेगा कौन
मंज़र भोपाली
ग़ज़ल
न करना तर्क 'बेख़ुद' मोहतसिब के डर से मय-ख़्वारी
कहीं धब्बा लगा लेना न अपने नाम पर देखो
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
लपक के मुझ को गले लगाया ख़ुदा की रहमत ने रोज़-ए-महशर
अभी सुनाया था मोहतसिब ने मिरे गुनह का हिसाब आधा