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ग़ज़ल
हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में
फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बढ़ के रिंदों ने क़दम हज़रत-ए-वा'इज़ के लिए
गिरते पड़ते जो दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
यूँ पीर-ए-मुग़ाँ शेख़-ए-हरम से हुए यक-जाँ
मय-ख़ाने में कम-ज़र्फ़ी-ए-परहेज़ बहुत है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
हज़ार इंकार या क़त-ए-तअल्लुक़ उस से कर नासेह
मगर हिर-फिर के होंटों पर उसी का नाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जन्नत में ख़ाक बादा-परस्तों का दिल लगे
नक़्शे नज़र में सोहबत पीर-ए-मुग़ाँ के हैं
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
होता है इस जहीम में हासिल विसाल-ए-जौर
'मोमिन' अजब बहिश्त है दैर-ए-मुग़ाँ न छोड़