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ग़ज़ल
मुहाफ़िज़ है तिरा दामन बहुत ही ख़ून में आलूद
मगर ये दाग़ दामन पर तिरे अच्छे नहीं लगते
अरशद साद रुदौलवी
ग़ज़ल
जहाँ भी शाम-ए-तन जाए मुहाफ़िज़ साँप की सूरत
मैं अपनी रेज़गारी की वहीं अम्बार करता हूँ
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
इन गली-कूचों में बहनों का मुहाफ़िज़ कौन है
कस्ब-ए-ज़र की दौड़ में बस्ती से माँ-जाए गए
तालिब जोहरी
ग़ज़ल
अनवर सहारनपुरी
ग़ज़ल
किनारे मो'तबर होते मुहाफ़िज़ नाख़ुदा होता
न कश्ती डूबती कोई न हर पल सानेहा होता