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ग़ज़ल
कभी तो बंदगी की लज़्ज़तों से आश्ना होगा
किसी के नक़्श-ए-पा पर सर झुकाने की तमन्ना है
अमतुल हई वफ़ा
ग़ज़ल
मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है
कि हर जल्वे में उस के क्या कहूँ और ही झमक्का है
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
तिरे मिज़्गाँ की फ़ौजें बाँध कर सफ़ जब हुईं ख़ड़ियाँ
किया आलम को सारे क़त्ल लो थीं हर तरफ़ पड़ियाँ