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ग़ज़ल
न धक्का है न मुक्का है लड़ाई देखते जाओ
ज़बानी हो रही है हाथा-पाई देखते जाओ
किशन लाल ख़न्दां देहलवी
ग़ज़ल
ऐ बर्क़-ए-तजल्ली कौंध ज़रा क्या मुझ को भी मूसा समझा है
मैं तूर नहीं जो जल जाऊँ जो चाहे मुक़ाबिल आ जाए