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ग़ज़ल
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर-दिल हों मुमकिन है
हम तो उस दिन राय देंगे जिस दिन धोका खाएँगे
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
बहुत से शे'र मुझ से ख़ून थुकवाते हैं आमद पर
बहुत मुमकिन है मैं एक दिन ग़ज़ल-ख़्वानी से मर जाऊँ
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त का जब कुछ तूल कम होना नहीं मुमकिन
तो मेरी ज़िंदगी का मुख़्तसर अफ़्साना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे