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ग़ज़ल
कभी महफ़िल में रोज़-ओ-शब हुए हैं तज़्किरे मेरे
कभी बन कर ख़बर मैं ज़ीनत-ए-अख़बार होती हूँ
इरुम ज़ेहरा
ग़ज़ल
मिन्नत-ए-मा'नी नहीं है लज़्ज़त-ए-बे-इख़्तियार
नहव-ए-हैरत में हैं सब हर्फ़-ओ-बयाँ ठहरे हुए
सरमद सहबाई
ग़ज़ल
मुनाफ़िक़ों में शब-ओ-रोज़ भी गुज़ारता हूँ
और उन की ज़द से भी ख़ुद को बचाना होता है
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
रोज़-ए-अज़ल सूरत तिरी देखे हुए मुद्दत हुई
अब तक वही जल्वा तिरा शाम-ओ-सहर आँखों में है
मुंफरीद गोरखपुरी
ग़ज़ल
क्या हुआ गर शैख़ यारो हाजी-उल-हरमैन है
तौफ़-ए-दिल का हक़ में उस के दीन फ़र्ज़-ए-ऐन है