हर रग-ए-गुल बाद-ए-सरसर के निशाँ ठहरे हुए
हर रग-ए-गुल बाद-ए-सरसर के निशाँ ठहरे हुए
हैं किसी दाइम ख़िज़ाँ में गुलसिताँ ठहरे हुए
एक तस्वीर-ए-तमाशा चल रही है रात दिन
और कई मंज़र हैं आँखों से निहाँ ठहरे हुए
गुम हदीस-ए-नफ़्स है हर्ज़ा-सराई में कहीं
और बाम-ए-होश हैं वहम-ओ-गुमाँ ठहरे हुए
एक सन्नाटे की तह में सर पटख़ती है सदा
चश्मा-ए-लब पर हैं क्या संग-ए-गिराँ ठहरे हुए
रोज़-ओ-शब के ज़ाइचों में है मुक़य्यद ज़िंदगी
और हैं वक़्त-ए-नज़अ' में जिस्म-ओ-जाँ ठहरे हुए
दिल पे अब इल्हाम उतरते हैं 'अज़ाबों की तरह
हैं सरों पर कैसे कैसे आसमाँ ठहरे हुए
मिन्नत-ए-मा'नी नहीं है लज़्ज़त-ए-बे-इख़्तियार
नहव-ए-हैरत में हैं सब हर्फ़-ओ-बयाँ ठहरे हुए
जिस घड़ी उस से मिले थे वो घड़ी बीती नहीं
हम तो कब से हैं वहीं 'उम्र-ए-रवाँ ठहरे हुए
रात दिन करता हूँ मैं ख़ून-ए-जिगर से एहतिमाम
हैं सराए-जाँ में मेरे मेहमाँ ठहरे हुए
दिल पलटता है किताब-ए-'उम्र को क्यों बार बार
सेहर क्या हैं दास्ताँ-दर-दास्ताँ ठहरे हुए
ढूँडते हो तुम हमें क्या रोज़-ओ-शब के दरमियाँ
है जहाँ कुछ और ही हम हैं जहाँ ठहरे हुए
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