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ग़ज़ल
ये का'बे से नहीं बे-वज्ह निस्बत-ए-रुख़-ए-यार
ये बे-सबब नहीं मुर्दे को क़िबला-रू करते
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
ज़िंदा कर देता है इक दम में ये ईसा-ए-नफ़स
खेल इस को गोया मुर्दे को जिलाना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
सैकड़ों मुर्दे जलाए हो मसीहा नाज़ से
मौत शर्मिंदा हुई क्या क्या तिरे एजाज़ से
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
गिनती एक इक नाम की हर गोर में मुर्दे हैं दफ़्न
बाद-ए-मुर्दन भी हुई दुश्वार तन्हाई मुझे
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ग़ज़ल
दम-ए-ईसा में वो तासीर थी तेरी ही क़ुदरत की
वगर्ना कोई मुर्दे को जिला सकता है क्या क़ुदरत
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मुर्दे जी उठते हैं जब नाम तिरा सुनते हैं
हम से पूछे कोई एजाज़-ए-मसीहा क्या है