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ग़ज़ल
जो पाँच वक़्त मुसल्ले पे क़िबला-रू निकले
उन्हीं बुज़ुर्गों के ज़ेर-ए-बग़ल सुबू निकले
मुबारक अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ग़ाएब हैं नमाज़ी भी ग़ाएब है वो मुल्ला भी
मस्जिद में मुसल्ले पर लोटा नज़र आता है
बुलबुल काश्मीरी
ग़ज़ल
अगर मस्लक के झगड़ों ने मसाजिद बाँट रक्खी हैं
तो फिर बहर-ए-ख़ुदा अपने मुसल्ले डाल सड़कों पर
अनस नबील
ग़ज़ल
ख़ुदा की याद में ग़ाफ़िल न शैख़ ख़ल्क़ से हो
कभी कभी तो मुसल्ले पे ज़िक्र-ए-यार चले