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ग़ज़ल
माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
खो जाऊँ मुश्त-ए-ख़ाक में ऐसा नहीं हूँ मैं
दरिया हूँ अपनी ज़ात में क़तरा नहीं हूँ मैं
एजाज़ अंसारी
ग़ज़ल
जो मुश्त-ए-ख़ाक हो उस ख़ाक-दाँ की बात करो
ज़मीं पे रह के न तुम आसमाँ की बात करो
अब्दुल मजीद सालिक
ग़ज़ल
हूँ मुश्त-ए-ख़ाक मगर कूज़ा-गर का मैं भी हूँ
सो मुंतज़िर उसी लम्स-ए-हुनर का मैं भी हूँ
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ये मुश्त-ए-ख़ाक मुझ को इक जहाँ मालूम होती है
जो गर्द-ए-कारवाँ है कारवाँ मालूम होती है
लुत्फुल्लाह खां नज़्मी
ग़ज़ल
ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा
पर इस 'आलम को इस 'आलम से मत बार-ए-गराँ ले जा
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
वो मुश्त-ए-ख़ाक जो परवाना-ए-दिल-गीर बनती है
जिगर की आग बुझ जाती है जब इक्सीर बनती है
तालिब देहलवी
ग़ज़ल
उड़ के जो पहुँची सबा के साथ गलियों में तिरी
मुश्त-ए-ख़ाक-ए-कुश्ता-ए-तेग़-ए-अदा थी मैं न था