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ग़ज़ल
मग़रूर क्यूँ न होवे सनअत पर अपनी साने
किस वास्ते जब उस ने ये गुलिस्ताँ बनाया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
क्यूँ कर न होवे क्लिक हमारा गुहर-फ़िशाँ
करते हैं 'आबरू' ये तख़ल्लुस सुख़न में हम