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ग़ज़ल
ख़ूब इक नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ने ये इरशाद किया
बज़्म में उस ने त'अल्ली जो कल अकबर की सुनी
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ये मश्क़-ए-ताज़ा फ़रमाने लगे
दिन तो था अब रात को भी आ के समझाने लगे
नसीम देहलवी
ग़ज़ल
जनाब-ए-नासेह-ए-मुशफ़िक़ हैं कुछ खोए हुए 'तालिब'
किसी काफ़िर को शायद देख आए बे-हिजाबाना
तालिब जयपुरी
ग़ज़ल
जनाब-ए-नासेह-ए-मुशफ़िक़ नसीहत जब लगे करने
दिखाई चोंच हँस हँस कर उन्हें चाक-ए-गरेबाँ ने
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
ये नसीहत तो बजा नासेह-ए-मुश्फ़िक़ लेकिन
कोई दीवाना समझता भी है समझाने से
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर देहलवी
ग़ज़ल
मुझे समझा रहे हैं आप क्या ऐ नासेह-ए-मुश्फ़िक़
मोहब्बत में किसी की बात ही मानी नहीं जाती
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
ग़ज़ल
मिरा रोना मिरे बस में नहीं है नासेह-ए-मुश्फ़िक़
घटा ये ख़ुद बरस जाती है बरसाई नहीं जाती
माया खन्ना राजे बरेलवी
ग़ज़ल
तज़्किरा तर्क-ए-मोहब्बत का कभी जब आ गया
नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ने वो तक़रीर फ़रमाई कि बस
तलअत सिद्दीक़ी नह्टोरी
ग़ज़ल
हुआ हूँ मुंतही ता'लीम पा कर इश्क़-ए-कामिल से
पढ़ाओ नासेह-ए-मुश्फ़िक़ न दीबाचा नसीहत का