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ग़ज़ल
बे-ज़बानी में 'अमानत' की वो हैं गुल-रेज़ियाँ
नातिक़ा हो बंद ऐ दिल बुलबुल-ए-नाशाद का
अमानत लखनवी
ग़ज़ल
महशर का ख़ैर कुछ भी नतीजा हो ऐ 'अदम'
कुछ गुफ़्तुगू तो खुल के करेंगे ख़ुदा के साथ
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
क़स्र-ए-तन को यूँ ही बनवा ये बगूले 'नासिख़'
ख़ूब ही नक़्शा-ए-तामीर लिए फिरते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
ये बार-ए-ग़म-ए-इश्क़ समाया है कि 'नासिख़'
है कोह से दह-चंद गिरानी मिरे दिल की