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ग़ज़ल
जिस की ख़ुशबू से मोअत्तर है मशाम-ए-ज़िंदगी
बे-वक़ार-ए-वज़्न फिरता है वो नाफ़ा-दार देख
माहिर अब्दुल हई
ग़ज़ल
सहरा में वो सब कुछ था जो था शहर में अपने
इक नफ़ा ओ नुक़सान का दफ़्तर ही नहीं था
सुहैल अहमद ज़ैदी
ग़ज़ल
तुम इसे कह लो हिसाब-ए-दोस्ताँ-दर-दिल 'फ़ज़ा'
हम ने अपना नफ़अ' भी लौह-ए-ज़ियाँ पर लिख दिया