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ग़ज़ल
फ़न्न-ए-मौसीक़ी से वाबस्ता है अपनी शायरी
हम ग़ज़ल पढ़ते हैं ऐ 'नग़्मा' हुनर के साथ-साथ
नग़मा ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कर बैठे तर्क-ए-इश्क़ हम चाक-ए-गरेबाँ सी लिया
'नग़्मा' भी ख़ुद हैरान है हम पारसा इतने न थे
रूपा मेहता नग़मा
ग़ज़ल
कभी नग़्मा-ए-ग़म-ए-आरज़ू कभी ज़िंदगी की पुकार हम
कभी ख़ाक-ए-कूचा-ए-यार हम कभी शहरयार-ए-बहार हम