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ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त में जब नज्म-ए-सहर भी डूब जाते हैं
उतरता है मिरे दिल में ख़ुदा आहिस्ता आहिस्ता
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
शह-ए-रग से भी तू क़रीब है तिरा ये करम है कमाल है
ये जो ख़ाक में भी है रौशनी तिरा अक्स-ए-रू-ए-जमाल है