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ग़ज़ल
जुनूँ के हात अब मैं क्या कहूँ दिल सख़्त हैराँ है
गरेबाँ कर चुका हूँ नज़्र आगे अब ये दामाँ है
ज़का मीर औलाद मोहम्मद ख़ान
ग़ज़ल
दो पत्थर जिस के लगते फूट जा सर ख़ूँ निकल आवे
निहाँ रक्खा है मेरे हक़ में संग-ए-आस्ताँ तू ने
ज़का मीर औलाद मोहम्मद ख़ान
ग़ज़ल
मोहम्मद अजमल नियाज़ी
ग़ज़ल
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मिला कर ख़ाक में फिर ख़ाक को बर्बाद करते हैं
ग़रीबों पर सितम क्या क्या सितम-ईजाद करते हैं