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ग़ज़ल
मैं ही तन्हा हूँ यहाँ उस की सलाबत का गवाह
कौन उठा कर ये मिरा संग-ए-हुनर ले जाएगा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
शान-ए-हैरत है कि जिस को संग कह देते हैं लोग
फिर वही दिल टूटने पर आइना कहलाए है
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो
है दर-ए-दिल पे कोई संग-ए-गिराँ हम-नफ़सो
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
अल्लाह-रे उस की चौखट है बोसा-गाह-ए-आलम
कहता है संग-ए-असवद मैं संग-ए-आस्ताँ हूँ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
है नाज़ संग को कि वही इक है वज्ह-ए-ज़ख़्म
शीशे को आज उस के मुक़ाबिल में छोड़ दो
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-वक़्त का अब ख़ूँ निचोड़ना होगा
कि संग-ए-सख़्त अदाओं की अंजुमन में है
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
बहुत आसाँ न समझो संग-दिल दिल मोम हो जाना
उतरती है निगाह-ए-अव्वलीं आहिस्ता आहिस्ता