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ग़ज़ल
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
पैरों को तो दश्त भी कम है सर को दश्त-नवर्दी भी
'आदिल' हम से चादर जितनी फैल सकी फैला ली है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
अल्लाह-रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बा'द-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
और क्या देता भला सहरा-नवर्दी का ख़िराज
तू बचा था अब के तू भी नज़्र-ए-महमिल हो गया
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ग़ज़ल
मिटाता जा रहा हूँ नक़्श-ए-पा सहरा-नवर्दी में
कहाँ ढूँडेंगे मुझ को मेरी मंज़िल देखने वाले