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ग़ज़ल
'नव्वाब' वो चाहे हुस्न की हो दौलत है बहर-सूरत दौलत
दौलत को जहाँ में क़ियाम कहाँ ये आनी जानी होती है
नवाब देहलवी
ग़ज़ल
जला दें हम क़फ़स की तितलियाँ शो'ला-नवाई से
हर इक मुर्ग़-ए-चमन 'आसी' अगर हो हम-ज़बाँ अपना
आसी रामनगरी
ग़ज़ल
कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
मोहब्बत आग है ऐसी अगर इक बार लग जाए
बुझाओ लाख तुम चाहे धुआँ इस का सिला होगा