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ग़ज़ल
सवाल-ए-हक़-परस्ती पर ये बोले हज़रत-ए-वाइज़
निपटने दीजिए मुझ को तो जाहिल से ज़रा पहले
नज़्र फ़ातमी
ग़ज़ल
बर्बाद जो इक आन में हो जाता है ग़ुंचा
हर ख़ार मगर नज़्र-ए-ख़िज़ाँ क्यों नहीं होता
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
ग़ज़ल
हक़ तो ये है कि मुझे अपने ही दिल ने लूटा
कुछ तिरा शिकवा-ए-बेदाद करूँ या न करूँ
सुल्तानुल हक़ शहीदी काश्मीरी
ग़ज़ल
किसी मनचले ने भेजा है मय-ए-सुख़न से भर कर
कि ये साग़र-ए-दिल-अफ़ज़ा है ये नज़्र-ए-दिल-निगाराँ
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ
हम से अजब तिरा दर्द का नाता देख हमें मत भूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम राह-रव-ए-मंज़िल दुश्वार रहे हैं
हर तरह मुसीबत में गिरफ़्तार रहे हैं