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ग़ज़ल
इशक़-ओ-मय-ख़्वारी निभे है कोई दरवेशी के बीच
इस तरह के ख़र्ज-ए-ला-हासिल को दौलत चाहिए
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
नूह नारवी
ग़ज़ल
हाँ हमारी निभ तो सकती थी मगर कैसे निभे
अपनी ख़ुद्दारी में हम और वो वफ़ा ना-आश्ना
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
बंधे शर्त-ए-वफ़ा क्यूँकर निभे रस्म-ए-वफ़ा क्यूँकर
यहाँ कुछ और है दिल में वहाँ कुछ और है दिल में
नूह नारवी
ग़ज़ल
आशिक़ ओ माशूक़ की हाए निभे किस तरह
उन को कुदूरत का शौक़ मुझ को सफ़ाई का इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
निभे तो कैसे निभे अब ये सोचना है 'वक़ार'
कि वो सुख़न से गुरेज़ाँ है मैं फिदा-ए-सुख़न
वक़ार मानवी
ग़ज़ल
अब देखिए क्या निबटे सीना है सिपर अपना
वो ख़ंजर-ए-मिज़्गाँ का ख़ूँ-ख़ार है और मैं हूँ
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
जिस ने कर दिया रुस्वा जिस ने कर दिया बर्बाद
उस से क्या निभे ऐ दिल रस्म-ए-दोस्ती अपनी
ख़्वाजा ज़मीर
ग़ज़ल
थोड़ी सी ज़ीस्त है जो ख़ुशी से निभे तो ख़ैर
वर्ना निशात-ओ-ख़ुर्रमी-ओ-ग़म ये सब नहीं
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
अब आगे देखिए क्या निबटे उस के दरबाँ से
हम उस के पहुँचे हैं दर तक ख़ुदा ख़ुदा कर के