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ग़ज़ल
जामा-ए-दाग़ को मल्बूस कर अपना दिन रात
क्यूँकि ये जामा तिरे क़द पे निपट ठीक है दिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल मिरे दिल ग़म-ए-दुनिया से निपट ले कि अभी
तुझे करनी है नए ज़ख़्म की मेहमानी भी
सनाउल्लाह ज़हीर
ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
है इज़्तिराब-ए-दिल से निपट अर्सा मुझ पे तंग
आज उस तलक ब-दीदा-ए-तर जाऊँ क्या करूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
तेग़-ए-अबरू कूँ निपट कसते हो पन हैराँ हूँ मैं
कौन से बीमार पर ये आब दम होने लगा