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ग़ज़ल
मर्द-ए-दरवेश का सरमाया है आज़ादी ओ मर्ग
है किसी और की ख़ातिर ये निसाब-ए-ज़र-ओ-सीम
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये इश्क़ होता है बिन सिखाए कि उस का कोई निसाब कैसा
हर इक है इस राह का मुसाफ़िर फ़क़ीर कैसा नवाब कैसा
अक़्सा फ़ैज़
ग़ज़ल
पढ़ा नहीं था निसाब-ए-उल्फ़त अमल में आगे थे हर किसी से
समझती दुनिया अगर हमें बे-मिसाल होते कमाल होते
आबिद उमर
ग़ज़ल
वसी शाह
ग़ज़ल
बहुत सी आँखें लगीं हैं और एक ख़्वाब तय्यार हो रहा है
हक़ीक़तों से मुक़ाबले का निसाब तय्यार हो रहा है