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ग़ज़ल
अपने लहू से रक्खी है बुनियाद-ए-ज़िंदगी
हम से निज़ाम-ए-गुलशन-ए-हस्ती में जान है
सय्यद अख़्तर अली अख़्तर
ग़ज़ल
बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती है क़ाएम शादी-ओ-ग़म से
जो गुल ख़ंदाँ है गुलशन में तो गिर्यां शम-ए-महफ़िल में
निहाल लखनवी
ग़ज़ल
क्या गुलशन-ए-हस्ती फूले फले इक फूल भी जब शादाब नहीं
मरने के हैं सामाँ बहुतेरे जीने के मगर अस्बाब नहीं
नवाब देहलवी
ग़ज़ल
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
कि इतने में अजल आ कर पुकारी याद करते हैं
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-गुलशन-ए-हस्ती पे छा रहा हूँ मैं
तिरे करम का करिश्मा दिखा रहा हूँ मैं
मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी
ग़ज़ल
आज इक क़ब्र पे 'आलिम' ये लिखा देखा था
साकिन-ए-गुलशन-ए-हस्ती न मुझे याद करें
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
बहार-ए-गुलशन-ए-हस्ती पे क्यों नाज़ाँ है ऐ गुलचीं
छुपी शायद ख़िज़ाँ इस में नहीं मालूम होती है
वफ़ा बराही
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-गुलशन-ए-मक़्तल नशात-ए-दीदा-ओ-दिल है
कि जाँ-परवर बहार-ए-सब्ज़ा-ए-शमशीर-ए-क़ातिल है