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ग़ज़ल
नोचे हैं कभी हम ने हवादिस के गरेबाँ
नाकामी-ए-कोशिश पे कभी हाथ मले हैं
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
गर जिस्म की ही चाह है उस को मोहब्बत क्यों कहें
नोचे हवस में जो बदन वो तिश्नगी अच्छी नहीं
साहेब श्रेय
ग़ज़ल
हमारी आँख से नोचे गए हैं सब हसीं मंज़र
नज़र छीनी गई है और नज़ारे बेच डाले हैं
इरशाद क़मर बुख़ारी
ग़ज़ल
अपने पर अपनी ही मिंक़ार से नोचे मैं ने
क्या करूँ ताब-ए-फ़रामोशी-ए-सय्याद नहीं