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ग़ज़ल
रास्ता में इक नया मंज़र नज़र आया तो क्या
साथ चलने अपने कोई हम-सफ़र आया तो क्या
मर्दान अली खां निशात
ग़ज़ल
हिफ़्ज़-ए-गुल के लिए रखते जो निगहबाँ कुछ और
हो गया फूलों से महरूम गुलिस्ताँ कुछ और
अहसन अली ख़ाँ
ग़ज़ल
मैं इसी ख़ाक पे बैठा हूँ बड़े शौक़ के साथ
कोई निस्बत नहीं अब तक मुझे सुल्तानी से
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
उसे बस अपने लोगों से कुछ ऐसी ख़ास निस्बत है
कि ग़ैरों से कभी हम ने उसे मिलते नहीं देखा
बासित जलीली
ग़ज़ल
हिक़ारत से न देखो दिल को जाम-ए-जम भी कहते हैं
इसी ख़ाक-ए-तपाँ को फ़ातेह-ए-आलम भी कहते हैं
सहाब क़ज़लबाश
ग़ज़ल
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
जब लिखा हम ने ख़त अश्कों से हुआ तर काग़ज़
यूँ ही हर रोज़ तलफ़ होते हैं अक्सर काग़ज़
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
न कभी कोई ख़त आया न पयाम-ए-यार आया
मगर इक जवाब उल्टा कि हज़ार बार आया