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ग़ज़ल
तू अपने ओहदा-ए-मुंसिफ़ से मुंसिफ़ इस्तिफ़ा दे दे
अगर हक़दार का हक़ तुझ से दिलवाया नहीं जाता
नवाज़ असीमी
ग़ज़ल
जाने ख़्वाबीदा कि बेदार है मुंसिफ़ का ज़मीर
हम तो इंसाफ़ की ज़ंजीर हिला भी आए
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
नियाबत हम को रिज़वाँ की मिली मौला के सदक़े से
वगर्ना ओहदा-ए-दरबानी-ए-बाग़-ए-जिनाँ और हम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
यहाँ का ओहदा-ए-ओ-मंसब तो माल-ओ-ज़र पे रखा है
मगर इंसाफ़ हम ने 'अर्सा-ए-महशर पे रखा है
असर फ़रीदी
ग़ज़ल
फ़र्क़ क्या मुल्ज़िम-ओ-मुंसिफ़ में बताया जाए
है ये बे-कार की तकरार चलो छोड़ो भी
असरारुल हक़ असरार
ग़ज़ल
अफ़सोस दर-ए-मुंसिफ़ से भी इंसाफ़ की भीक नहीं मिलती
कहने के लिए हर रोज़ नए दरबान बदलते रहते हैं