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ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुम से वो अफ़्साने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
जाती हुई मय्यत देख के भी वल्लाह तुम उठ के आ न सके
दो चार क़दम तो दुश्मन भी तकलीफ़ गवारा करते हैं