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ग़ज़ल
जे. पी. सईद
ग़ज़ल
वो तो हश्र था मगर उस की अब वो शबाहतें भी चली गईं
जो रहें तो शहर में क्या रहें कि क़यामतें भी चली गईं
आर पी शोख़
ग़ज़ल
है हमारी दोस्ती का यही मुख़्तसर फ़साना
तिरा शौक़-ए-ख़ुद-नुमाई मिरा ज़ौक़-ए-आशिक़ाना
जे. पी. सईद
ग़ज़ल
माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
बस्ती में बच गए थे मकाँ कम बहुत ही कम