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ग़ज़ल
पड़ गई पाँव में तक़दीर की ज़ंजीर तो क्या
हम तो उस को भी तिरी ज़ुल्फ़ का बल कहते हैं
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सख़्त-जानी से मैं आरी हूँ निहायत ऐ 'तल्ख़'
पड़ गए हैं तिरी शमशीर में दंदाने दो