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ग़ज़ल
हाथ मिरे पतवार बने हैं और लहरें कश्ती मेरी
ज़ोर हवा का क़ाएम है दरिया की रवानी बाक़ी है
कुमार पाशी
ग़ज़ल
मौजें ही पतवार बनेंगी तूफ़ाँ पार लगाएगा
दरिया के हैं बस दो साहिल कश्ती के हैं छोर बहुत