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ग़ज़ल
रोज़ रातों को सुना करता हूँ ये आवाज़-ए-क़ैस
फाड़े खाता है मुझे ख़ाली बयाबाँ आज-कल
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
लैला-ए-ख़ुद-आगाह की धुन में दामन फाड़े क़ैस बने
सहरा सहरा ख़ाक उड़ाए इंसाँ कितना प्यारा है
ओवेस अहमद दौराँ
ग़ज़ल
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
हम कि दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं
हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है