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ग़ज़ल
गराँ थी धूप और शबनम भी जिन पौदों को गुलशन में
तिरी क़ुदरत से वो फूले-फले सहरा के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
कुछ फले-फूले न ये नाज़ुक मज़ामीं ऐ 'जलील'
बे-खिले मुरझा गईं कलियाँ मिरे गुलज़ार की
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
शजर में ज़ीस्त के है शाख़-ए-ग़म समर-आवर
जो इन रुतों में फले शाइ'री तो अच्छा है