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ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ के फंदों को खोलो फिर दम-ए-'शो'ला' रुका
क्यों गले में घोंटते हो जान-ए-बे-तक़्सीर को
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
हर तरफ़ फैला हुआ है जब तिरा दाम-ए-फ़रेब
ता-ब-कै बचते तिरे फंदों से ऐ सय्याद हम
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
ग़ज़ल
ख़ुद अँधेरों की मुलाक़ात से डर जाते हैं
ख़ौफ़ के फंदों पे लहराए हुए ये चेहरे
शिव ओम मिश्रा अनवर
ग़ज़ल
हक़-गोई अगर है जुर्म तो फिर ले जाओ सलीबों तक मुझ को
सूली के लटकते फंदों तक मैं अपनी सदा ले जाऊँगा