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ग़ज़ल
आप के पीछे पीछे फिरने से तो रहे इस उम्र में हम
राह पे आ बैठे हैं ये भी ग़नीमत बहुत ज़ियादा है
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
हम आवारा गाँव गाँव बस्ती बस्ती फिरने वाले
हम से प्रीत बढ़ा कर कोई मुफ़्त में क्यूँ ग़म को अपना ले
हबीब जालिब
ग़ज़ल
उस्तुरा फिरने से रू-ए-यार पर है दौर-ए-ख़त
चाल उस कम-बख़्त ने सीखी है क्या परकार की
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
अब हिफ़ाज़त जितनी है महबूस हो जाने में है
ख़ुद के बाहर घूमने फिरने का अब मौक़ा नहीं